अजय तिवारी /अधिवक्ता की कलम से
आज़ादी के 73 वर्ष बाद भी लोगों की मानसिकता संकीर्ण है जो ऐसे घिनौने कृत्य को अंजाम देते है ,ऐसी घटनाएं इस बात का सबूत देती है कि लोगों की नजर में बेटियां सिर्फ खिलौना है।आखिर कबतक देश की बेटियों का हाल निर्भया के जैसे होता रहेगा ? हैवानियत इस कदर की पीड़िता की जीभ काट दी गयी और कमर की हड्डी तोड़ दी गई। ऐसी घटना होने के बाद पुलिस की तफ़्तीश का ख़राब स्तर और पूरी न्यायिक व्यवस्था में भरी ‘विक्टम शेमिंग’ या पीड़िता को दोषी ठहराने वाली सोच को बदले बिना क्या देश में बड़े बदलाव आ सकते हैं? हमें ज़रूरत है शहरों और गांवों के आधारभूत ढाँचों को स्त्रियों के पक्ष में मोड़ने की ताकि वो रोज़मर्रा का जीवन किसी आम इंसान की तरह जी सकें”।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो रिपोर्ट 2017 के आंकड़े बताते है कि महिलाओं के विरुद्ध 3,59,849 अपराध हुए है जिनमें से सर्वाधिक 15.6% सिर्फ उत्तरप्रदेश में हुए है।
यदि कानून की कमी को दोष दें तो धीमी न्याय प्रक्रिया और सबूतों की मजबूती के तर्क पर कई बार बच जाने वाले जघन्य अपराधों के दोषियों की हरकतें भी नए अपराधों में छिपी होती हैं। लेकिन सवाल फिर वही कि इससे निपटा कैसे जाए? कौन इसके लिए पहल करेगा? किस तरह से तैयारी करनी होगी और तैयारी के बाद अमल में कैसे लाया जाए? लेकिन आज हकीकत ठीक इसके विपरीत है।
ऐसी घटनाओं पर राजनीतिक रोटी का सेंका जाना भी सवालिया निशान उठाती है। देखा यह भी गया है कि ऐसी घटनाओं में राजनीतिकरण के आवरण में असली दर्द छिप जाता है और मरहम के बजाय मातमपुरसी का दौर चल पड़ता है।
आखिर कब तक कितनी निर्भया /मनीषा हैवानों का शिकार होती रहेंगी??